Sunday, July 5, 2009

99% नंबर, कभी आए हैं आपके ?

न न न मैंने तो कभी नहीं पाए. बल्कि सच्चाई तो ये है कि अपने समय में, गणित के अतिरिक्त, इस तरह के अंक कभी किसी को मिल भी सकते हैं, सुनना तो दूर, सोचा भी नहीं जा सकता था. आज मध्यवर्गी शहरी मां-बाप और बच्चे, दोनों ही 99% के फेर में सलीब पर टंगे नज़र आते है.

 

इतने प्रतिशत अंक बटोरने के पीछे मानसकिता क्या है ? जब भी इस सवाल का उत्तर जानने का प्रयास किया तो जो एक कारण सामने आया वह था बढ़ती मांग और उपलब्धता के बीच चौड़ी होती खाई. ये मांग भले हीं चहेते कोर्स की हो या चहेते संस्थान में दाखिले की, या फिर चहेती नौकरी की. इन तीनों ही संदर्भों में, जितने लोग अपेक्षा रखते हैं उतने स्थान नहीं होते. ऐसे में, हां लाइन में सबसे आगे पहुंच जाने की संभावना बढ़ जाती है. लेकिन यहां सवाल ये भी है कि ऐसे अवसर कितनों को उपलब्ध हैं. क्या अवसरों की उपलब्धता का अधिकार केवल कुछ शहरी लोगों ही के लिए है? क्या बाकी लोगों को अपनी लड़ाई हाथ पीछे बांध कर ही लड़नी होगी ? क्या देश के बाकी अधिकांश लोग भी इनते ही सुविधासंपन्न हैं कि वे भी मुकाबले की स्थिति में आ सकें? या जिसकी लाठी उसी की भैंस वाली स्थिति स्वीकार्य है?

 

इतने प्रतिशत अंक क्या वास्तव में ही ज्ञानवान होने की गारंटी है ? एक समय, कुंजी से पढ़ना शर्म की बात मानी जाती थी. लोग छुप कर कुंजियां पढ़ते थे. आज मास्टर लोग किताब के बजाय कुंजी से ही पढ़ा मारते हैं. किसी को फ़ुर्सत नहीं ये जानने की कि किताब की ज़रूरत ही क्योंकर है. पाठ पढ़ाने के बाद सवाल पूछने का औचित्य होता है विश्लेषण व तर्क शक्ति का विकास. जबकि कुंजी का मतलब है उल्टी करने की क्षमता में महारत. 2 जमा 2 = 4 सभी कर लेते हैं. लेकिन 2 जमा 2, 4 के अलावा 3 और 5 भी कर लेना तभी आता है जब बच्चा जीवन के स्कूल से सीखता है.

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क्या इतने अंक लेकर जीवन में सफलता की गारंटी पक्की है्? इस सवाल का जवाब मुझे कभी नहीं मिला क्योंकि मैं सफलता का अर्थ कभी समझ नहीं पाया. शायद इसलिए कि, सफलता के बहुत से मतलब हो सकते हैं. बल्कि हर एक के लिए सफलता का अलग मतलब हो सकता है. एक बात तय है, इस तरह के अंक पाने की होड़ में वे लोग तो मुझे कभी नहीं मिले जो केवल ये जताना चाह रहे हों कि देखो हमारी पकड़ इन विषयों पर कितनी ज्यादा है.

 

जीवन में सफलता से अभिप्राय क्या है? क्या अंत में एक बड़ी सी नौकरी पा लेना ही सफलता का प्रयाय है? (क्योंकि अपना काम-धंधा जमा लेने की चाह रखने वालों को मैंने इस तरह के नंबर लेने की दौड़ में नहीं पाया). या नौकरी के बाद सुखी जीवन भी इसकी सीमारेखा में आता है? क्या सुखी जीवन केवल भौतिकता पर ही आधारित है, या इसके मायने इससे कहीं ज्यादा हैं ? ऐसे ही बहुत से दूसरे सवाल भी हैं जिन्हें मैं पाठको पर छोड़ता हूं.

इतने प्रतिशत अंक आखिर मिलते कैसे हैं? वास्तव में ही, मुझे नहीं पता कि इतने अधिक अंक आखिर मिलते कैसे हैं. लेकिन ये तय है कि इतने प्रतिशत अंक लाने के लिए बग्घी के घोड़े की तरह केवल सामने दिखाने वाला चमड़े का चश्मा बहुत ज़रूरी है. ये बात दीगर है कि जीवन के बाकी सभी ज़रूरी पाठ भले ही इस चश्मे की पहुंच से बाहर रह जाएँ. समाजशास्त्र के विज्ञाताओं के लिए यह महत्वपूर्ण विषय हो सकता है कि ऐसे लोग समाज को किस दिशा में ले जाएँगे.

 

इस मानसिकता से छुटकारा दिलाने की चाभी किसके पास है ? क्या बस 10वीं की परीक्षा को साधारण परीक्षा में बदल देना भर समाधान है? नहीं, 12वीं की परीक्षा के बारे में सरकारों की ओर से कुछ नहीं कहा जा  रहा. स्नातक/ स्नातकोत्तर परीक्षाओं में इस तरह की दौड़ क्यों दिखाई नहीं देती. इस मानसिकता से छुटकारा दिलाने का एक ही तरीका है और वह है, प्रवेश-परीक्षाएं. इस पद्ध्ति में moderation के ज़रिये लोगों को चुने जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि केवल उन्हीं को फ़ायदा न हो जो किसी खास विषय में महारत रखते हैं.

1 comment:

  1. Nahin aaye..Waise bhi aaj ke yug mein numberon ki pherhist mein oopar aane se jyada competitive exams mein safal hona juroori hai.

    Shayad samay ke sath board ki ye parikshayein optional ho jayein jaisi ki aajkal charcha bhi chal rahi hai.

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