Sunday, July 26, 2009

समुद्र भी सूख सकते हैं- मिलें अराल समुद्र से

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क्या आपने कभी सोचा है कि समुद्र भी सूख सकते है ! यदि नहीं तो आइए आपको एक ऐसे ही एक समुद्र से मिलवया जाए जिसे अभी कल ही तक अराल समुद्र के नाम से जाना जाता था. यह आज के कज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान के मध्य स्थित है, एक समय इसमें 1500 टापू हुआ करते थे. इसका क्षेत्रफल 1960 में 68,000 skm. था जो आज घट कर केवल 10% रह गया है.image और ऐसा हुआ है तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा इसे पानी उपलब्ध करवाने वाली दोनों नदियों का प्रवाह मोड़ देने से. तत्कालीन शासन द्वारा खेती के लिए पानी उपल्ब्ध करवाने की नीति के अंतर्गत इन नदियों का प्रवाह मोड़ दिया गया था.

 

आज इस मोड़े गए पानी के प्रवाह का केवल 12% भाग पक्का है शेष भाग कच्चा होने के कारण पानी का बहुत बड़ा हिस्सा वाष्पीकृत होकर नष्ट हो जाता imageहै. अराल समुद्र के सूखने के कारण जहां एक ओर पर्यावरण नष्ट हो गया है वहीं दूसरी ओर समुद्र पर जीवनयापन को निर्भर लोगों की जीवनशैली बदल गई है. यद्यपि 1994 में कज़ाकिस्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमीनिस्तान, ताज़ीक़िस्तान और क्रिगीस्तान ने समाझौता  किया था कि वे अपने-अपने बजट का 1% इस समुद्र को बचाने के प्रयासों के लिए देंगे लेकिन कोई बहुत बड़ा अंतर देखने में अभी नहीं आया है. आशा करनी चाहिये कि मनुष्य इस बात को समझेगा कि दूर की न सोचने पर इस तरह के परिणाम सामने आते हैं.

चित्र-साभार वाइकीपीडिया

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Thursday, July 23, 2009

नासा (NASA) का भारत से एक संबंध ये भी है (A Quick Post)

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एक दशक पूर्व 23 जुलाई,1999 को नासा ने अंतरिक्ष में एक महत्वपूर्ण वेधशाला, कोलंबिया अंतरिक्ष यान से पृथ्वी की कक्षा में प्रतिस्थापित की जिसका नाम इसने रखा “चंद्र वेधशाला”. इसका नामकरण भारतीय मूल के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सुब्रामनियन चंद्रशेखर के नाम पर रखा गया है.

 

यह वेधशाला 5 वर्ष के कार्यकाल के लिए अंतरिक्ष में भेजी गई थी लेकिन इसने अब सफलतापू्र्वक 10 वर्ष पूरे कर लिए हैं. “चंद्र वेधशाला” ने खगोलविदों को धूमकेतु, ब्लैक होल, डार्क मैटर व डार्क एनर्जी जैसे विषयों की पड़ताल में बहुत महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध करवाई हैं.

 

और अधिक जानकारी के लिए कृपया निम्न लिंक देखें :-

नासा

वाइकिपीडिया

 

Sunday, July 19, 2009

संभवत: गूगल क्रोम, विंडोज़ और लीनक्स को मिटा देगा …

गूगल कंपनी, साल भर में ‘गूगल क्रोम ऑपरेटिंग सिस्टम’ लाने वाली है जो संभवत: 2010 के मध्य किसी समय आएगा. ऐसी संभावनाऐं व्यक्त की जा रहीं हैं कि यह ऑपरेटिंग सिस्टम बाकी सभी प्रतियोगियों को बाज़ार से बाहर कर देगा. इससे संबंधित जो बातें सुनने में आ रही हैं उन्हें यूं समझा जा सकता है:-

 

यह ऑपरेटिंग सिस्टम ओपन सोर्स आधारित होगा यानी यह मुफ़्त तो होगा ही इसमें प्रयोक्ता जैसा चाहे वैसा बदलाव भी कर सकेगा.

इसे ज़ीरो बूट टाइम ऑपरेटिंग सिस्टम कहा जा रहा है यानि कंप्यूटर स्टार्ट होने में उतना ही समय लेगा जितना समय कंप्यूटर DOS के दिनों में लिया करते थे.

यह कंप्यूटर-संसाधनों की दृष्टि से बहुत हल्का और हैंग न होने वाला imageऑपरेटिंग  सिस्टम होगा.

इसके लिए लिखे जाने वाले एप्लीकेशंस दूसरे ऑपरेटिंग सिस्टम पर भी चल सकेंगे जबकि आज लीनक्स के और विंडोज़ के एप्लीकेशंस एक दूसरे पर नहीं चलते हैं.

इस ऑपरेटिंग सिस्टम पर अलग से ब्राउज़र की ज़रूरत नहीं रहेगी जैसे कि आज फ़ायरफ़ाक्स, एक्सप्लोरर आदि की ज़रूरत रहती है. गूगल क्रोम ब्राउज़र इस ऑपरेटिंग सिस्टम का ही एक हिस्सा हो जाएगा, जबकि अभी यह अलग से बाज़ार में उतारा गया है.

यह ऑपरेटिंग सिस्टम इंटनेट को ध्यान में रख कर बनाया गया है.

इसे पुराने 286 से लेकर लैपटाप सहित किसी भी नवीनतम कंप्यूटर पर चलाया जा सकेगा.

इसे अलग से एंटी-वायरस और अपडेट्स की ज़रूरत नहीं होगी और न ही नए नए हा्र्डवेयर के लिए ड्राइवरज़ की, क्योंकि गूगल इस ऑपरेटिंग सिस्टम को लगातार अपडेट करने की बात कर रहा है.

 

आशा करनी चाहिए कि गूगल ने लीनक्स की लोकप्रियता न बढ़ने के कारणों से सीख ली होगी. लीनक्स मुफ़्त होने के बावजुद आजतक विंडोज़ का स्थान नहीं ले पाया जबकि शुरू-शुरू में ऐसे दावे किए गए थे. यदि गूगल इन बातों का ध्यान रख कर उन सभी विषेशताओं को समाहित कर सके जिनके बारे में जानकार कह रहे हैं तो, यह बात निश्चित है कि माइक्रोसोफ़्ट-विंडोज़ और लीनक्स के दिन अब लदने ही वाले हैं. बाक़ी …. आगे आगे देखिए होता है क्या.

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Friday, July 17, 2009

अब आप नाम नहीं, नंबर से जाने जाएंगे, तैयार हैं !

नेशनल अथॉरिटी फॉर यूनीक आइडेंटिटी (NAUI) की शुरूआत भारत में बहुत पहले हो जानी चाहिए थी. ख़ैर देर आए दुरूस्त आए. लेकिन इसके रास्ते आसान नहीं हैं क्योंकि अभी भी यह साफ़ नहीं है कि इस नंबर के अंतर्गत जो बायोमीट्रिक कार्ड जारी किया जाना है उसकी रणनीति क्या रहेगी.

 

समझा ये जा रहा है कि नंदन नीलेकणी के वर्चश्व में प्रत्येक नागरिक को दिए जाने वाले नंबर का डाटाबेस रहेगा लेकिन, कार्ड जारी करने का काम विभिन्न मंत्रालयों के माध्यम से राज्य सरकारों के सहयोग से होगा यद्यपि इसका कोई imageठोस खाक़ा हमारे सामने नहीं है. इसपर होने वाले खर्च, कार्यदल, कार्यदल गठन की प्रकिया, कार्यदल की समीक्षा, कार्यावधि इत्यादि को लेकर उठने वाले कई सवालों का जवाब भी अभी तक कहीं नहीं मिला है. विषेशकर इस संदर्भ में कि आजतक वोटर पहचान पत्र की प्रकिया ही पूरी तरह संपन्न नहीं हो पाई है जबकि, यह पिछले कई सालों से चल रही है.

 

 

यूनीक आइडेंटिटी नंबर दिए जाने से एक बहुत बड़ा फ़ायदा देश की अर्थव्यवस्था को प्रत्यक्ष रूप से होगा. और वह है अवांछित राशन-कार्डों की संख्या पर नियंत्रण पाना. राशन-कार्ड पर मिलने वाली वस्तुओं और खाद्य सामग्री को सस्ता रखने के लिए सरकार हज़ारों करोड़ रूपये की सब्सिडी देती है. लेकिन डुप्लीकेट और ग़लत नामों से बने राशन-कार्डों के चलते यह पैसा अवांछित लोगों की जेब में चला जाता है. इसे रोकने में निसंदेह बहुत बड़ी मदद मिलेगी. जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग आज भी राशन कार्ड को पहचान पत्र के आशय से बनवाता है जिसके चलते भी सब्सिडी का दुरूपयोग होता आया है. आशा करनी चाहिए कि सरकार कम से कम राशन कार्ड चाहने वालों के लिए तो इसे ज़रूरी बनाएगी ही.

 

इस बीच, एक संदेह जो उत्पन्न होता है वह है इन नंबरों को जारी करने की प्रकिया में क्या वास्तव ही में इतनी सावधानी बरती जा सकेगी कि अवांछित लोगों को यह नंबर न दिये जा सकें? विषेशकर इस तथ्य को देखते हुए कि भारत आज लोगों के ग़ैरकानूनी प्रवेश को रोक पाने में स्वयं को अक्षम पा रहा है. इन सवालों का जवाब भी कहीं नहीं मिल रहा है कि इस नंबर वाला कार्ड किन परिस्थितियों में अनिवार्य होगा. और यदि यह सबके लिए अनिवार्य नहीं होगा तो क्या इसका कोई समुचित औचित्य शेष बचता है ? क्योंकि ऐसे में यह तय है कि देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा इसे नहीं ही बनवाएगा. तो फिर क्या ये गाल बजाने जैसी ही बात नहीं हुई ?

 

अलबत्ता अब लोग, 46461247 यादव, 7545465 शर्मा, 44654654 वर्मा, 58211768 सक्सेना जैसे नामों से जाने जाएंगे. भले ही कुछ महानुभाव अभी भी राय बहादुर 753467 सिंह ठाकुर जैसे नामों का मोह नहीं ही छोड़ पाएंगे. दक्षिण भारत में बच्चे के नाम से पहले उसके पिता और दादा का नाम जोड़ने का भी चलन है, ज़ाहिर है कि उनके नाम और लंबे होंगे लेकिन इसके चलते ऐसे बच्चों की गणितीय क्षमता में और अधिक वृद्धि की आशा करनी चाहिए.  उन लोगों का न जाने क्या होगा जो बच्चों के नाम सुझाने की किताबें छाप कर ही अपनी दुकानें चलए बैठे थे. उन पंडित जी का भी भला नहीं होगा जो बच्चों के नामकरण समारोहों में जीमने जाते थे.

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Tuesday, July 7, 2009

हिंदी में टिप्पणी करने का सबसे आसान तरीका

कुछ समय पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी गूगल ने तो आज हिंदी वालों की लॉटरी ही खोल दी. जिसमें मैंने हिंदी में टिप्पणी करने के लिए गूगल की translitation सुविधा का उल्लेख किया था.

 

मैंने पाया कि ब्लाग पर टिप्पणियां देने के लिए 3 तरह के प्रावधान हैं. पहले वे ब्लाग हैं जिनपर टिप्पणी के लिए पोस्ट के नीचे ही बाक्स बना रहता है जिसे embed box कहते हैं. दूसरे, टिप्पणी के लिए एक बाक्स pop up होता है, यानि पोस्ट के अतिरिक्त एक अन्य बाक्स खुलता है. और तीसरे, प्रावधान के अंतर्गत पोस्ट से अगला पृष्ठ टिप्पणी के लिए खुलता है.

 

जहां तक अंतिम प्रावधान की बात है, गूगल ने तो आज हिंदी वालों की लॉटरी ही खोल दी. नामक पोस्ट में दी गई जानकारी मान्य है किन्तु, पहली दो स्थितियों में वह

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में वह तरीक़ा काम नहीं आता. इसी के मद्देनज़र, ‘हिंदी कैफ़े टाइपिंग टूल’ एक बहुत बढ़िया Gadget है. इसे आप http://www.cafehindi.com/ के लिंक http://cafehindi.com/download/utt/utt.zip से डाउनलोड कर सकते हैं.

 

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इसे install करने के बाद, जब आप इसे activate कर देंगे तो आप पायेंगे कि आपके कंप्यूटर का default font हिन्दी हो गया है. बस अब आप सीधे उपरोक्त पहले तरह के दोनों टिप्पणी बाक्स में भी हिंदी में टाइप कर सकते हैं. इसके

अतिरिक्त आप आफलाइन रह कर माइक्रोसोफ्ट वर्ड में भी हिन्दी में टाइप कर अपने दस्तावेज सहेज सकते हैं. करना बस आपको इतना भर है कि माइक्रोसोफ्ट वर्ड में टाइप करते समय हिन्दी फांट akshar unicode चुनना होगा. अक्षर यूनिकोड फांट में टाइप किए गए दस्तावेज़ कापी कर इन्टरनेट/ ब्लाग पर प्रकाशित करने के लिए सीधे पेस्ट किए जा सकते हैं. मसलन, ये पोस्ट मैंने हिंदी कैफ़े टाइपिंग टूल का प्रयोग करते हुए, माइक्रोसोफ्ट वर्ड में ही टाइप की है.

 

यद्यपि, अभी स्वरों पर मात्रा लगाने में आपको कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है. इस समस्या के हल के लिए निसंदेह मैं गूगल translitation की सहायता लेता हूं. इसी तरह, कुछ व्यंजनों में मात्रा आपकी मर्जी अनुसार न लगे तो शब्द विषेश को तोड़कर टाइप किया जा सकता है. और, सबसे महत्वपूर्ण बात, आप जब चाहें फांट हिंदी से अंग्रेज़ी या, अंग्रेज़ी से हिंदी कर सकते हैं – करना बस इतना है कि कीबोर्ड पर F12 कुंजी को दबाएं या, नीचे टूलबार पर हिंदी कैफ़े टाइपिंग टूल के icon को क्लिक करें.          

Sunday, July 5, 2009

99% नंबर, कभी आए हैं आपके ?

न न न मैंने तो कभी नहीं पाए. बल्कि सच्चाई तो ये है कि अपने समय में, गणित के अतिरिक्त, इस तरह के अंक कभी किसी को मिल भी सकते हैं, सुनना तो दूर, सोचा भी नहीं जा सकता था. आज मध्यवर्गी शहरी मां-बाप और बच्चे, दोनों ही 99% के फेर में सलीब पर टंगे नज़र आते है.

 

इतने प्रतिशत अंक बटोरने के पीछे मानसकिता क्या है ? जब भी इस सवाल का उत्तर जानने का प्रयास किया तो जो एक कारण सामने आया वह था बढ़ती मांग और उपलब्धता के बीच चौड़ी होती खाई. ये मांग भले हीं चहेते कोर्स की हो या चहेते संस्थान में दाखिले की, या फिर चहेती नौकरी की. इन तीनों ही संदर्भों में, जितने लोग अपेक्षा रखते हैं उतने स्थान नहीं होते. ऐसे में, हां लाइन में सबसे आगे पहुंच जाने की संभावना बढ़ जाती है. लेकिन यहां सवाल ये भी है कि ऐसे अवसर कितनों को उपलब्ध हैं. क्या अवसरों की उपलब्धता का अधिकार केवल कुछ शहरी लोगों ही के लिए है? क्या बाकी लोगों को अपनी लड़ाई हाथ पीछे बांध कर ही लड़नी होगी ? क्या देश के बाकी अधिकांश लोग भी इनते ही सुविधासंपन्न हैं कि वे भी मुकाबले की स्थिति में आ सकें? या जिसकी लाठी उसी की भैंस वाली स्थिति स्वीकार्य है?

 

इतने प्रतिशत अंक क्या वास्तव में ही ज्ञानवान होने की गारंटी है ? एक समय, कुंजी से पढ़ना शर्म की बात मानी जाती थी. लोग छुप कर कुंजियां पढ़ते थे. आज मास्टर लोग किताब के बजाय कुंजी से ही पढ़ा मारते हैं. किसी को फ़ुर्सत नहीं ये जानने की कि किताब की ज़रूरत ही क्योंकर है. पाठ पढ़ाने के बाद सवाल पूछने का औचित्य होता है विश्लेषण व तर्क शक्ति का विकास. जबकि कुंजी का मतलब है उल्टी करने की क्षमता में महारत. 2 जमा 2 = 4 सभी कर लेते हैं. लेकिन 2 जमा 2, 4 के अलावा 3 और 5 भी कर लेना तभी आता है जब बच्चा जीवन के स्कूल से सीखता है.

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क्या इतने अंक लेकर जीवन में सफलता की गारंटी पक्की है्? इस सवाल का जवाब मुझे कभी नहीं मिला क्योंकि मैं सफलता का अर्थ कभी समझ नहीं पाया. शायद इसलिए कि, सफलता के बहुत से मतलब हो सकते हैं. बल्कि हर एक के लिए सफलता का अलग मतलब हो सकता है. एक बात तय है, इस तरह के अंक पाने की होड़ में वे लोग तो मुझे कभी नहीं मिले जो केवल ये जताना चाह रहे हों कि देखो हमारी पकड़ इन विषयों पर कितनी ज्यादा है.

 

जीवन में सफलता से अभिप्राय क्या है? क्या अंत में एक बड़ी सी नौकरी पा लेना ही सफलता का प्रयाय है? (क्योंकि अपना काम-धंधा जमा लेने की चाह रखने वालों को मैंने इस तरह के नंबर लेने की दौड़ में नहीं पाया). या नौकरी के बाद सुखी जीवन भी इसकी सीमारेखा में आता है? क्या सुखी जीवन केवल भौतिकता पर ही आधारित है, या इसके मायने इससे कहीं ज्यादा हैं ? ऐसे ही बहुत से दूसरे सवाल भी हैं जिन्हें मैं पाठको पर छोड़ता हूं.

इतने प्रतिशत अंक आखिर मिलते कैसे हैं? वास्तव में ही, मुझे नहीं पता कि इतने अधिक अंक आखिर मिलते कैसे हैं. लेकिन ये तय है कि इतने प्रतिशत अंक लाने के लिए बग्घी के घोड़े की तरह केवल सामने दिखाने वाला चमड़े का चश्मा बहुत ज़रूरी है. ये बात दीगर है कि जीवन के बाकी सभी ज़रूरी पाठ भले ही इस चश्मे की पहुंच से बाहर रह जाएँ. समाजशास्त्र के विज्ञाताओं के लिए यह महत्वपूर्ण विषय हो सकता है कि ऐसे लोग समाज को किस दिशा में ले जाएँगे.

 

इस मानसिकता से छुटकारा दिलाने की चाभी किसके पास है ? क्या बस 10वीं की परीक्षा को साधारण परीक्षा में बदल देना भर समाधान है? नहीं, 12वीं की परीक्षा के बारे में सरकारों की ओर से कुछ नहीं कहा जा  रहा. स्नातक/ स्नातकोत्तर परीक्षाओं में इस तरह की दौड़ क्यों दिखाई नहीं देती. इस मानसिकता से छुटकारा दिलाने का एक ही तरीका है और वह है, प्रवेश-परीक्षाएं. इस पद्ध्ति में moderation के ज़रिये लोगों को चुने जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि केवल उन्हीं को फ़ायदा न हो जो किसी खास विषय में महारत रखते हैं.

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