(अगर आप केवल मोबाइल बैटरी के बारे में जानना चाहते हैं तो बस अंतिम पैरा पढ़ें, बाक़ी लेख बिना पढ़े भी आपका काम चल जाएगा).
जैसे भारत में कभी कार और हवाई जहाज़ बस अमीरों की सवारी हुआ करते थे लेकिन मारूति और कैप्टेन गोपीनाथ ने जो योगदान इन्हें आम आदमी की सवारी बना देने में किया, वही काम चीन ने मोबाइल के क्षेत्र में किया है.
शरू शुरू में, भारत में मोबाइल-निर्माता फ़ोन के दाम ठीक वैसे ही ऊंचे रखते थे जैसे आज एप्पल अपने आई-फ़ोन के रखता है. और, लोग भी रेस्टोरेंटों मे ख़ास अच्छी ऊंची आवाज़ में बात करके आसपास सबको ये जताने में कोई क़सर नहीं उठा रखते थे कि देखो-देखो उनके पास मोबाइल फ़ोन है, ठस्से से. मोबाइल फ़ोन तब जेब में नहीं बल्कि हाथ में ही रखे जाते थे ताकि सबको पता तो चले. औरतों के लिए तो लेडीज़ पर्सों की ही तर्ज़ पर रंग-बिरंगे छोटे-छोटे नक़्काशीदार थैले-झोले भी बनाए जाते थे जिन्हें ‘पाउच’ के नाम से पुकारे जाने का रिवाज़ था. पर भला हो चीन का जिसने इस पूरी की पूरी मोबाइल संस्कृति की ही रेड़ लगा दी.
चीन ने बाज़ार में एक से एक, ऐसे मोबाइल फ़ोन ला कर ठोक दिए जो क़ीमत में तो 75-80 प्रतिशत तक कम थे पर उनमें फ़ीचर दूसरे प्रचलित फोनों से कही ज़्यादा थे. हालत ये हो गई कि दिल्ली में तो एक मार्केट जो कल तक गफ़्फार मार्केट के नाम से जानी जाती थी उसे ‘चाइनीज़ फ़ोन मार्केट’ ही कहा जाने लगा. मेरा पहला टचफ़ोन एक चाइनीज़ टचफ़ोन ही था. उस वक्त भारत में टचफ़ोन नया-नया आया था और वही एक कंपनी अपने दो-एक मॉडल बाज़ार में 25-27 हज़ार के आसपास बेचती थी जिसके ऑथोराइज़्ड सर्विस (रिपेयर) सैंटरों में आज भी लोग यूं लाइनों में बैठे मिलते हैं जैसे शहर में हैज़ा फैल जाने से डाक्टरों के क्लीनिक मरीज़ों से पटे मिलते हैं. इस कंपनी का, मोबाइल-हैंडसैट-बाज़ार में लगभग एकाधिकार था. भारतीयों को पक्का भरोसा हो गया लगता था कि इस कंपनी के अलावा किसी और को तो मोबाइल फ़ोन बनाना ही कहां आता होगा. और मज़े की बात तो ये है कि आज भी इस कंपनी का जलवा कुछ-कुछ वैसा ही बरकरार है भले ही आज, वो उस बीते कल की बातें याद कर-कर के खून के घूंट पी रही हो. चीन ने, दूसरी मोबाइल कंपनियों को हैंडसैट की क़ीमत कम रखना सिखाया.
वह चाइनीज़ टचफ़ोन क़रीब पांच हज़ार का था. उसकी बैटरी एक बार चार्ज करने पर लगभग चार-पांच दिन तो चलती ही थी जबकि फ़ोन ठीक-ठाक प्रयोग होता था हालांकि मुझे बताया गया था बड़े स्क्रीन वाले फ़ोन ज़्यादा बैटरी खाते हैं. उसपर तुर्रा ये कि एक बैटरी तो फ़ोन में लगा कर दी गई थी, दूसरी बैटरी मुफ़्त अलग से मिली थी. अगर कहीं आना जाता हो तो मुझे चार्जर साथ नहीं रखना होता था बस दूसरी बैटरी भी चार्ज करके साथ ले जाने से ही काम चल जाता था. इसका स्क्रीन भी अच्छा बड़ा था जिसमें फ़ोंट भी बड़े दिखते थे जबकि रंगीन फ़ोनों के स्क्रीन अभी पिद्दे से ही लगते थे और उनमें कुछ पढ़़ना भी मुश्किल होता था. हां, सलेटी सक्रीन वाले फ़ोन के फ़ोंट अपेक्षाकृत बड़े मिलते थे. उसमें .3gp फ़ार्मेट फ़िल्म भी चलती थी. बाद में, सुनने में आया था कि मोबाइल फ़ोन बनाने वाली कंपनियां IMEI नंबर के नाम पर एक दिन मिल कर ‘शेर आया, शेर आया’ चिल्लाईं और भारत में चाइनीज़ फ़ोन बिकने व चलने बंद हो गए. आज उस फ़ोन पर, परिवार की एक बिटिया गाने सुनती है और, वो भी स्पीकर ऑन करके.
आज इन नए आने वाले फ़ोनों में बैटरी पहले की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली हैं लेकिन फिर भी, ठीक-ठाक प्रयोग किए जाने पर किसी भी हाई-फ़ाई फ़ोन की बैटरी शाम तक ख़त्म होने लगती है. इसका कारण ये है कि ये फ़ोन बैकग्राउंड में लगातार कई ऐसे काम करते रहते हैं जिनमें बैटरी की खपत होती रहती है. इनमें सबसे प्रमुख है इ-मेल चैक करने का. जब भी मेल आए तो ये फ़ोन इसकी सूचना बीप से देते हैं. इसके लिए फ़ोन, हर थोड़ी देर में/ एक निश्चित अंतराल के बाद जो काम करता है उसमें बैटरी खर्च होती रहती है. स्क्रीन की चमक 70-80 प्रतिशत कम करने पर बैटरी काफी बचने लगती है. 3G कनेक्शन वाले फ़ोन लगातार डाटा ट्रांसफ़र मोड में रखने से भी बैटरी खाते हैं. जैसे आप विंडो कंप्यूटर में कंट्रोल+ऑल्ट+डेल बटन दवाकर ‘टास्क मैनेजर’ में देख पाते हैं कि कौन-कौन सी गतियिधियां कंप्यूटर की मेमोरी खा रही हैं उसी प्रकार आप अपने फ़ोन में कुछ छोटे-छोट प्रोग्रामों की मदद से, बैकग्राउंड में चलने वाले ग़ैरज़रूरी प्रोग्राम बंद कर सकते हैं. इससे जहां एक ओर, बैटरी की खपत में बचत होगी वहीं दूसरी ओर आपके फ़ोन की स्पीड भी बढ़ जाएगी. एंड्रायड में इसके लिए ‘एंड्रायड अस्सिस्टेंट’ व ‘एंड्रायड बूस्टर’ जैसे कई मुफ़्त साफ़्टवेयर उपलब्ध हैं. इसी तरह के प्रोग्राम नोकिया व एप्पल के लिए भी इनके ‘एप्प स्टोर’/ साइट पर ज़रूर उपलब्ध होने चाहिए.
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-काजल कुमार
स्मार्टफोन तभी स्मार्ट है जब उसकी बैटरी दमदार हो !
ReplyDeleteकम से कम पूरे दिन चले बैटरी, दो दिन चले तो क्या बात है..
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