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कार्टूनिंग के इतिहास बगैहरा के बारे में तो आपने निश्चित ही  कहीं न कहीं, कुछ न कुछ ज़रूर पढ़ा होगा लेकिन हो सकता है कि आपने ये न पढ़ा हो कि  कोई कार्टूनिस्ट, कार्टून बनाता कैसे है. वास्तव में किसी कार्टूनिस्ट का कार्टून  बनाने के बारे में बात करना ठीक वैसा ही है जैसे जादूगर का जादू के बारे में बताना.  पहिये के अविष्कारक ने पहिये की जानकारी अगर बांटी न होती तो शायद हम आज भी पैदल ही  चल रहे होते. आइए, आप भी कार्टून बनाइए. | 
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कार्टून विधा के दो अंग हैं एक वैचारिक दूसरा तकनीकि. वैचारिक  पक्ष के बारे में बस वही कहा जा सकता है जो प्रेमचंद ने कहा था कि कोई भी लेखक बन  सकता है बशर्ते उसके पास कहने के लिए कुछ हो. विचार जितनी तेज़ी से आता है उतनी ही  तेज़ी से चला भी जाता है इसलिए भलाई इसी में है कि कागज़ कलम हमेशा तैयार रखे जाएं  (यह अतिश्योक्ति नहीं है). | 
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हाथ से कार्टून बनाना सबसे आसान है. कुछ लोग पहले, आकृति की  आउटलाइन पेंसिल से बनाते हैं. थोड़े मोटे पांइट वाले किसी भी पैन से कार्टून बनाए  जा सकते हैं, स्याही का रंग काला अच्छा रहता है क्योंकि प्रिंटिंग के लिए यह सबसे  उम्दा contrast देता है. पहले तांबे की क्राकर निब व होल्डर (पैन) का चलन था जिनके  लिए दवात वाली वाटरप्रूफ़ स्याही प्रयुक्त होती थी. पेपर, आर्ट-कार्ड या आइवरी  कार्ड हो तो बेहतर क्योंकि यह मोटा होता है. गल्तियां सुधारने के लिए सफेद रंग  लगाया जाता है जो सूखी वाटरप्रूफ़ स्याही पर घुलता नहीं है.  | 
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पहले, शेड के लिए हाफ़-टोन शीट का प्रयोग होता था जो प्लास्टिक की  स्टिक्कर जैसी पारदर्शी पन्नी होती थी जिस पर विभिन्न डिज़ाइन बने होते थे. इसे  आवश्यकतानुसार, चित्र पर चिपका दिया जाता था. और फालतू शीट को कटर से काट कर निकाल  दिया जाता था. एक ही चित्र/टाइटल इत्यादि की पुनर्वृत्ती के लिए ब्रोमाइड निकलवाए  जाते थे, जो रबर सोल्यूशन से चिपका दिए जाते थे. रबर सोल्यूशन कागज़ पर गोंद/  फ़ेवीकोल की तरह चिपकता नहीं है बल्कि इसे रगड़ कर निकाला जा सकता है. पहले शब्दों  को अलग से छाप कर चिपकाया जाता था जिसे पेस्टर किया करते थे, कंप्यूटरों ने यह काम  भी ख़त्म कर दिया. | 
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सबसे  सुंदर कार्टून आज भी ब्रश (ब्रुश) व काली स्याही से ही बनाए जाते हैं, ब्रश  की रेखाएं दबाव के अनुसार बहुत सुंदर प्रभाव देती हैं. ब्रश विधा सबसे कठिन है.  ब्रश विधा में पारंगत होने का बस एक ही उपाय है और वह है बारंबार अभ्यास. कुछ लोगों  को यह विधा विरासत में मिलती है जबकि बाक़ी सभी लोगों को हाथ साधने में कई-कई वर्ष  लगते हैं इसलिए अधिकांश लोग ब्रश के बजाय दूसरे माध्यम अपना लेते हैं. लंबे समय से  मुख्यत: जानवरों के बालों वाले ब्रश प्रयोग होते आए हैं पर आजकल सिंथेटिक्स बालों  वाले भी अच्छे ब्रश मिलते हैं. कार्टून बनाने के लिए जो ब्रश प्रयोग होते हैं वे  ज़ीरो नंबर से शुरू होते हैं. | 
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तकनीक ने उन्नति की तो विदेशों से स्टैडलर, रौट्टरिंग ब्रांड  जैसे महंगे पैन (pen) प्रयोग होने लगे. इनमें गाढ़ी स्याही प्रयुक्त होने के कारण  इन्हें स्पीड से नहीं चलाया जा सकता. ये पैन आज भी वास्तुकला रेखाचित्रों सरीखे  क्षेत्रों में प्रयुक्त होते हैं. शुरू शुरू में इनकी नकल के जब भारतीय पैन बनने  लगे तो वे सस्ते तो ज़रूर थे पर बहुत घटिया हुआ करते थे. ब्रश व पैन की बहुत सेवा  करनी पड़ती है क्योंकि वाटरप्रूफ़ स्याही सूख कर जम जाती है. | 
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कंप्यूटर के आने से कार्टूनिंग क्षेत्र में बहुत परिवर्तन  हुए. अब कार्टून में चरित्र और बैकग्राउंड किसी भी आम पैन से, अलग अलग बना कर 600/1200  या इससे भी अधिक DPI पर स्कैन कर लिए जाते हैं. इससे रेखाओं की मोटाई प्रर्याप्त  रूप से बढ़ जाती है. बैकग्राउंड और बैकग्राउंड के चित्र बनाने में भी कंप्यूटर का  काफ़ी प्रयोग होता है. बाद में इन चित्रों को आवश्यकतानुसार कंट्रास्ट घटा/बढ़ा कर  आपस में व्यवस्थित कर दिया जाता है और इच्छानुसार रंग भर लिए जाते हैं. कार्टूनिंग  की इस प्रकिया में अलग अलग प्रकार के साफ़्टवेयर प्रयुक्त होते हैं जो कार्टूनिस्ट  की पसंद और ज़रूरत पर निर्भर है. इलस्ट्रेटर, फ़ोटोशाप, कोरल पेंट, कोरल ड्रा,  पेंटर, पेज मेकर इत्यादि दसियों तरह के साफ़्टवेयर चलन में हैं. मानव चरित्र आज भी  कागज़ पर हाथ से ही बनाए जाते हैं क्योंकि यह आसान है, तीव्र है और फिर कंप्यूटरजनित चरित्रों में वो बात नहीं  ही आती. | 
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कार्टूनिस्ट बनना तो बाएं हाथ का खेल है पर कार्टून छपवाना  टेढ़ी खीर है. कार्टून प्रकाशन के बारे में पत्र-पत्रिकाओं की कोई नीति नहीं होती  सिवाय इसके कि जहां तक संभव हो फ्रीलांसरों के कार्टून छापने से बचो क्योंकि  कार्टून केवल विवादों को जन्म देते हैं. राजनीतिक व्यंग्यचित्रों के बारे में तो यह  बात सौ फ़ीसदी लागू है. और लाला लोग यूं भी पत्र- पत्रिकाएँ विवादों के लिए नही  चलाते. पत्र-पत्रिकाओं में कार्टून तभी छपते हैं जब कोई स्तंभ-संपादक मतिभ्रष्ट  होने की प्रक्रिया से गुज़र रहा हो या, कहीं किसी कोने में चुटकुले या शेर लायक जगह  तो बच गई हो लेकिन उतना घटिया चुटकुला या सस्ता शेर न मिल रहा हो जितना कि मालिक को  समझ आता हो. कार्टून की किताब छापना तो प्रकाशकों को हास्यास्पद ही नहीं बल्कि  बचकाना भी लगता है. केवल कार्टूनिस्ट बनकर किसी पत्र-पत्रिका समूह में, कला के दम पर ही, लंबे समय तक बने रहने के लिए पर्याप्त राजनीति आना ज़रूरी होता है. | 
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Monday, September 14, 2009
कार्टूनिंग के बारे में क्या ये जानते थे आप?
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वाह आज तो कार्टून का इतिहास पुराण लेकर कार्टूनिस्ट आ गया -हिन्दी दिवस विशेष ! शुक्रिया !
ReplyDeleteकार्टून का बहुत कुछ खुल गया अब तो । आभार ।
ReplyDeleteबेहद मानीखेज सामाग्री के लिए शुक्रिया.
ReplyDeleteपंकज पुष्कर
http://samajvigyan.blogspot.com/
कार्टूनिस्ट के लिए क्या करना पडता है
ReplyDelete👌
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