अजब दुनिया है यह फ़ेसबुक और ट्विट्टर भी. लगता है जैसे खाली बैठे सिर खुजाने वालों के मोहल्ले में आ गए हों.
इस तरह के प्रोग्राम लिखने वालों को इनकी प्रेरणा ज़रूर आदिमानवों द्वारा बनाए गए भित्ति चित्रों से मिली होगी. उन लोगों ने गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाए और कुछ-कुछ लिख कर चलते बने, पर अक़्लमंद लोग हैं कि उनके लिखे में आज भी मतलब ढूँढ़ रहे हैं. अरे भई छोड़ो न, ये उनके समय के फ़ेसबुक और ट्विट्टर थे. आज हज़ारों साल बाद भी यह परंपरा ज़िंदा है, यक़ीन नहीं तो बाहर कहीं भी किसी भी दीवार पर नज़र घुमाइए, शर्तिया कुछ न कुछ लिखा ज़रूर मिलेगा.
फ़ेसबुक व ट्विट्टर भी, दीवारों पर यूँ ही कुछ-कुछ लिख कर चलते बने लोगों की ही दुनिया है. यहाँ कुछ लोग हैं कि कुछ कवितामय छोड़ देते हैं तो कुछ जीवन-दर्शन सरीखा कुछ, कई तो चुटकुले लिख जाते हैं. पता ही नहीं चलता कि कौन किसके लिए क्या लिख रहा है. कुछ तरह-तरह की फ़ोटो टाँग जाते हैं.
सुंदर सी महिलाओं की फ़ोटो वाली लाइनों के नीचे पसंद करने वालों और प्रतिक्रिया देने वालों का तो ताँता ही लगा मिलता है, ज़ाहिर है इन लाइन लगाए लोगों में पुरुष ही ज़्यादा होते हैं.
ये प्रोग्राम भी जातिवादी परंपरा का पालन करते हैं. यहाँ बड़े लोगों के फ़ैन बनने के न्योते आते हैं तो आम जनता को मित्र बनाने के सूचनाएँ चस्पा की जाती हैं. अब श्रृद्धा आपकी है कि आप क्या करना चाहते हैं.
कुछ झंडाबरदार लोग भी यहाँ आते हैं, उन्हें इतने से ही सुख नहीं मिलता कि कुछ लिख कर चलते बनें. वे ग्रुप कहे जाने वाले अपने गुट बनाकर यहाँ-वहाँ लोगों को उनमें शामिल करने के संदेश तो दाग़ते ही रहते हैं, जहाँ मौक़ा मिला वहाँ लोगों को, उन्हें बिना बताए ही, इनमें चुपचाप शामिल भी कर लेते हैं. इनका गुज़ारा इतने से ही नहीं होता, इसके बाद आपको ढेरों इमेल भी ठेले जाते हैं कि फ़लाने ने ढिमाके के यहाँ क्या तीर मारा.
ट्विट्टर तो गूंगों की दुनिया लगती है. कोई आया और कुछ-कुछ लिख कर चलता बना, अगर आपके पास समय है तो पढ़ लो. बहुत हुआ तो आप भी कुछ लिख आओ. ट्विट्टर पढ़ कर ऐसे लगता है कि किसी ने शायद जम्हाई लेते हुए कुछ अनर्गल/ निरापद कह दिया हो. हां, यह बात दीगर है कि कुछ बड़े लोग जो कुछ कभी-कभार यहां लिखते हैं उसका ढिंढोरा मीडिया के दूसरे लोग जम कर पीट मारते हैं.
पहले-पहल कंप्यूटर में विंडो के साथ सॉलिटायर गेम का उद्देश्य यह बताया गया था कि यह काम करते-करते बोर होने पर मन बहलाने भर के लिए है. आज यही काम फ़ेसबुक और ट्विट्टर कर रहे हैं. ज्यों जेम्स बाँड की फ़िल्म में कोई सामाजिक संदेश नहीं ढूँढ़ा जाता ठीक वैसे ही फ़ेसबुक और ट्विट्टर पर भी कोई अर्थ नहीं ढूँढ़ा जाना चाहिए.
बहुत से लोगों को, एक समय के बाद यहां ऊब होने लगती है पर कई ठाड़े हैं कि जो आज भी यहां डटे हुए हैं.
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- काजल कुमार
इन दोनो माध्यमों में न्यूनतम समय, बस।
ReplyDeleteभित्ति चित्र और दीवारों पर लिखने का सामंजस्य अच्छा बिठाया है, बहुत बढिया पोस्ट।
ReplyDeleteचकाचक बात कही है आपने जी। आपका ये वाला ब्लाग तो पहली बार दिखा। मजे आ गये जी। ये क=कार्टून से फ़ुल खुश हो लिये जी हम! :)
ReplyDeleteRight....well said.
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