Thursday, December 1, 2011

क्या आपके मोबाइल में टचपैल कीबोर्ड नहीं है ? अफ़सोस, आप पीछे छूट गए…


सबसे पहले तो यह बात साफ कर दूं कि यह ‘टचपैल कीबोर्ड’ केवल टचफ़ोन के लिए है. और यह केवल अंग्रेज़ी व दूसरी यूरोपीय भाषाओं के लिए ही है. भारतीय भाषाओं में काम करने के लिए यह सक्षम नहीं है. इससे आप मोबाइल पर, डैस्कटाप की ही तरह, लंबे-लंबे लेख तक आराम से लिख सकते हैं.


 इस पर आपको परंपरागत तरीक़े से बटन दबा दबा कर टाइप करने की आवश्यकता नहीं होती. आपको बस अक्षरों पर अपनी उंगली रख कर दूसरे अक्षरों तक घसीट कर ले जानी भर होती है व शब्द पूरा होने पर ही स्क्रीन से उठानी होती है. जैसे India लिखने के लिए आप I पर उंगली रखिए फिर उसे n पर ले जाइए वहीं से आगे d पर… इसी प्रकार आगे. इसमें आपको इस बात से भी डरने की ज़रूरत नहीं कि उंगली थोड़ी आगे-पीछे रह गई तो क्या होगा, ऐसे में  कीबोर्ड अपने डाटाबेस से आपने आप अंदाज़ लगा लेता है कि आप क्या शब्द लिखना चाह रहे हैं. हां कई ऐसे शब्द जो इसे नहीं पता, उनके लिए आपको पहले की ही तरह एक एक अक्षर दबा कर ही लिखना होता है. एंड्रायड पर यह मुफ़्त है. माइक्रोसोफ़्ट के कारण अब यह विंडो मोबाइल 6x के लिए बंद कर दिया गया है. डाउनलोड कर आनंद उठाएं.

Sunday, November 20, 2011

अब एंड्रायड में भी एक बटन से स्क्रीनशॉट लिया जा सकता है.

एंड्रायड आधारित मोबाइल फ़ोन में अभी तक स्क्रीनशॉट लेना बड़ी टेढ़ी खीर थी. स्क्रीनशॉट लेने के लिए बड़ा लंबा रास्ता तय करना पड़ता था जो कि दूसरे साफ़्टवेयर की मदद से लैपटॉप/ डैस्कटॉप से हो कर गुजरता था. जबकि विंडोज़ में इसके लिए एक सीधा सा बटन कीबोर्ड पर ही लगा मिलता चला आया है जिसपर ‘PrintScreen’ लिखा होता था. इसलिए एंड्रायड में स्क्रीनशॉट लेना और भी दुरूह कार्य लगता था.
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एंड्रायड में लिया गया स्क्रीनशाट
लेकिन अब ये समस्या भी दूर हो गई है. सोनी एरिक्सन ने एक्पीरिया आर्क में सिस्टम अपग्रेड दिया है. इस अपग्रेड में जो तीन मुख्य बातें हैं, वे हैं 1- स्क्रीनशॉट की सुविधा. स्क्रीनशॉट के लिए पावर बटन को दबाने पर अब एक विकल्प और आने लगा है जिसे चुनने पर आप मोबाइल का स्क्रीनशॉट ले सकते हैं. 2- इसके अतिरिक्त, फ़ोटो खीचते समय इसमें एक नया फ़ीचर पैनोरामा भी मिलने लगा है. इसमें आप, काफी बड़ी फ़ोटो खींच सकते हैं. नीचे के चित्र में देखने पर पता चलता है कि बाएं से लेकर दाएं तक का चित्र आम कैमरे में नहीं आ सकता था. 3- पहले इसमें वीडियो फ़िल्म लेते समय ज़ूम का विकल्प नहीं था अब यह भी 16X तक उपलब्ध कराया गया है हालांकि यह अभी झटके से दृश्य को आगे पीछे करता है व बटन की आवाज़ भी रिकार्ड कर लेता है, पर कुछ भी न होने से यह बेहतर है. आशा है कि आगे चलकर इस स्थिति में और सुधार किया जाएगा.
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पैनोरामा विहंगम दृश्य
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-काजल कुमार

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Wednesday, November 9, 2011

लो जी, अडोब फ़्लैश भी गया.

 
 

जब से एप्पल का आईपैड आया है तब से लोगों को पता चलने लगा कि उसमें फ़्लैश नहीं चलता. वर्ना लोगों को तो इंटरनैट पर फ़लैश ठीक ऐसे ही लगता था जैसे विंडो के साथ एक्सप्लोरर. अडोब का फ़्लैश प्लेयर इंटरनेट पर वीडियो दिखाने का काम करता है. इंटरनेट पर अधिकांश वीडियो फ़्लैश प्लेयर में ही दिखाई देने के हिसाब से बनाए जाते रहे हैं.

इसके अलावा कई दूसरे फ़ार्मेट में भी वीडियो फ़ाइलें इंटनेट पर मिलती हैं जो कि एप्पल के Quicktime बगैहरा पर ही चलती हैं. हालांकि K-Lite सरीखे कोडेक से कई अलग-अलग प्लेटफ़ार्म वाली फ़ाइलें भी एक ही साफ़्टवेयर में चलाई जा सकती हैं.  Java और HTML दूसरे विकल्प सामने आने से अडोब फ़्लैश का हिस्सा कम होने लगा था.

वहीं दूसरी ओर  एंड्रायड ने रही सही क़सर निकाल दी. एंड्रायड  के शुरूआती संस्करणों में तो फ़लैश फ़ाइलें चलती ही नहीं थीं और जिन फ़्लैश संस्करणों को एंड्रायड में चलने लायक बनाया भी गया, वे बेअसर साबित होते रहे, कभी क्रैश हो कर तो कभी उपकरण की बैटरी की खपत बढ़ा कर.

एक अन्य बात जो सामने आई वह ये कि अडोब का फ़्लैश विभिन्न प्रकार के आपरेटिंग सिस्टम के साथ पांव से पांव मिलाकर चलने में पिछड़ने लगा. इस तरह अंत में, अडोब ने अपने हथियार डालते हुए फ़ैसला किया कि फ़्लैश के दिन लद गए.

यूं भी अब कंप्यूटर की दुनिया के लोगों को मान ही लेना चाहिये कि अब इस क्षेत्र में एकाधिकार के दिन बीत गए हैं. यह ख़बर wired.com के साभार है.
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-काजल कुमार

Friday, September 23, 2011

क्या आप फ़ेसबुक व ट्विट्टर पर हैं ?


अजब दुनिया है यह फ़ेसबुक और ट्विट्टर भी. लगता है जैसे खाली बैठे सिर खुजाने वालों के मोहल्ले में आ गए हों.

इस तरह के प्रोग्राम लिखने वालों को इनकी प्रेरणा ज़रूर आदिमानवों द्वारा बनाए गए भित्ति चित्रों से मिली होगी. उन लोगों ने गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाए और कुछ-कुछ लिख कर चलते बने, पर अक़्लमंद लोग हैं कि उनके लिखे में आज भी मतलब ढूँढ़ रहे हैं. अरे भई छोड़ो न, ये उनके समय के फ़ेसबुक और ट्विट्टर थे. आज हज़ारों साल बाद भी यह परंपरा ज़िंदा है, यक़ीन नहीं तो बाहर कहीं भी किसी भी दीवार पर नज़र घुमाइए, शर्तिया कुछ न कुछ लिखा ज़रूर मिलेगा.

फ़ेसबुक व ट्विट्टर भी, दीवारों पर यूँ ही कुछ-कुछ लिख कर चलते बने लोगों की ही दुनिया है. यहाँ कुछ लोग हैं कि कुछ कवितामय छोड़ देते हैं तो कुछ जीवन-दर्शन सरीखा कुछ, कई तो चुटकुले लिख जाते हैं. पता ही नहीं चलता कि कौन किसके लिए क्या लिख रहा है. कुछ तरह-तरह की फ़ोटो टाँग जाते हैं.

सुंदर सी महिलाओं की फ़ोटो वाली लाइनों के नीचे पसंद करने वालों और प्रतिक्रिया देने वालों का तो ताँता ही लगा मिलता है, ज़ाहिर है इन लाइन लगाए लोगों में पुरुष ही ज़्यादा होते हैं.

ये प्रोग्राम भी जातिवादी परंपरा का पालन करते हैं. यहाँ बड़े लोगों के फ़ैन बनने के न्योते आते हैं तो आम जनता को मित्र बनाने के सूचनाएँ चस्पा की जाती हैं. अब श्रृद्धा आपकी है कि आप क्या करना चाहते हैं.

कुछ झंडाबरदार लोग भी यहाँ आते हैं, उन्हें इतने से ही सुख नहीं मिलता कि कुछ लिख कर चलते बनें. वे ग्रुप कहे जाने वाले अपने गुट बनाकर यहाँ-वहाँ लोगों को उनमें शामिल करने के संदेश तो दाग़ते ही रहते हैं, जहाँ मौक़ा मिला वहाँ लोगों को, उन्हें बिना बताए ही, इनमें चुपचाप शामिल भी कर लेते हैं. इनका गुज़ारा इतने से ही नहीं होता, इसके बाद आपको ढेरों इमेल भी ठेले जाते हैं कि फ़लाने ने ढिमाके के यहाँ क्या तीर मारा.

ट्विट्टर तो गूंगों की दुनिया लगती है. कोई आया और कुछ-कुछ लिख कर चलता बना, अगर आपके पास समय है तो पढ़ लो. बहुत हुआ तो आप भी कुछ लिख आओ. ट्विट्टर पढ़ कर ऐसे लगता है कि किसी ने शायद जम्हाई लेते हुए कुछ अनर्गल/ निरापद कह दिया हो. हां, यह बात दीगर है कि कुछ बड़े लोग जो कुछ कभी-कभार यहां लिखते हैं उसका ढिंढोरा मीडिया के दूसरे लोग जम कर पीट मारते हैं.

पहले-पहल कंप्यूटर में विंडो के साथ सॉलिटायर गेम का उद्देश्य यह बताया गया था कि यह काम करते-करते बोर होने पर मन बहलाने भर के लिए है. आज यही काम फ़ेसबुक और ट्विट्टर कर रहे हैं. ज्यों जेम्स बाँड की फ़िल्म में कोई सामाजिक संदेश नहीं ढूँढ़ा जाता ठीक वैसे ही फ़ेसबुक और ट्विट्टर पर भी कोई अर्थ नहीं ढूँढ़ा जाना चाहिए.

बहुत से लोगों को, एक समय के बाद यहां ऊब होने लगती है पर कई ठाड़े हैं कि जो आज भी यहां डटे हुए हैं.

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- काजल कुमार

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